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Article 225 of the Indian Constitution
jp Singh 2025-07-04 11:49:29
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भारतीय संविधान का अनुच्छेद 225

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 225
अनुच्छेद 225 भारतीय संविधान के भाग VI(राज्य) के अंतर्गत अध्याय V(राज्य में उच्च न्यायालय) में आता है। यह उच्च न्यायालयों के क्षेत्राधिकार और शक्तियों(Jurisdiction of existing High Courts) से संबंधित है। यह प्रावधान उच्च न्यायालयों के क्षेत्राधिकार, शक्तियों, और नियम बनाने की प्रक्रिया को परिभाषित करता है।
"इस संविधान में अंतर्विष्ट किसी बात के अधीन, प्रत्येक उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार, और उसमें कार्य करने वाले न्यायाधीशों की शक्तियाँ और प्राधिकार, वही होंगे जो इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले थे, परंतु इस संविधान में कुछ भी अंतर्विष्ट नहीं है, जो यह उपबंध करता हो कि उच्च न्यायालय को अपने क्षेत्राधिकार के प्रयोग में, नियम बनाने की शक्ति नहीं होगी, जो इस संविधान के अधीन और उसके अनुरूप हो।"
विस्तृत विश्लेषण
उद्देश्य: अनुच्छेद 225 उच्च न्यायालयों के क्षेत्राधिकार, शक्तियों, और प्राधिकार को संरक्षित करता है, जैसा कि वे संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले थे। यह उच्च न्यायालयों को अपने क्षेत्राधिकार के प्रयोग में नियम बनाने की शक्ति प्रदान करता है, बशर्ते वे संविधान के अनुरूप हों। इसका लक्ष्य न्यायपालिका की स्वतंत्रता, न्यायिक निरंतरता, और संघीय ढांचे में उच्च न्यायालयों की स्वायत्तता और प्रभावशीलता को सुनिश्चित करना है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: संवैधानिक ढांचा: यह प्रावधान भारत सरकार अधिनियम, 1935 से प्रेरित है, जो उच्च न्यायालयों के क्षेत्राधिकार को परिभाषित करता था। यह ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रणाली में उच्च न्यायालयों की स्वायत्तता को दर्शाता है। भारतीय संदर्भ: संविधान लागू होने पर, यह प्रावधान उच्च न्यायालयों के मौजूदा क्षेत्राधिकार को बनाए रखने और उनकी स्वायत्तता को संरक्षित करने के लिए बनाया गया। प्रासंगिकता: यह प्रावधान उच्च न्यायालयों को उनके पारंपरिक क्षेत्राधिकार और स्वायत्त नियम-निर्माण की शक्ति प्रदान करता है।
अनुच्छेद 225 के प्रमुख तत्व
क्षेत्राधिकार और शक्तियाँ: प्रत्येक उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार, और इसके न्यायाधीशों की शक्तियाँ और प्राधिकार, वही होंगे जो संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले(26 जनवरी 1950) थे। यह क्षेत्राधिकार संविधान के अधीन है, अर्थात् अन्य संवैधानिक प्रावधानों(जैसे अनुच्छेद 226, 227) द्वारा सीमित या संशोधित हो सकता है। उदाहरण: 2025 में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने पारंपरिक क्षेत्राधिकार के तहत एक दीवानी मामले की सुनवाई की।
नियम बनाने की शक्ति: उच्च न्यायालय को अपने क्षेत्राधिकार के प्रयोग में नियम बनाने की शक्ति है, जो संविधान के अनुरूप होनी चाहिए। यह नियम कार्यवाही, प्रक्रिया, और प्रशासनिक मामलों से संबंधित हो सकते हैं। उदाहरण: 2025 में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने डिजिटल सुनवाई के लिए नियम बनाए।
महत्व: न्यायिक स्वायत्तता: उच्च न्यायालयों को स्वतंत्र नियम-निर्माण की शक्ति। न्यायिक निरंतरता: प्री-संवैधानिक क्षेत्राधिकार का संरक्षण। लोकतांत्रिक शासन: प्रभावी और स्वतंत्र न्याय प्रशासन। संघीय ढांचा: राज्यों में स्वायत्त न्यायपालिका।
प्रमुख विशेषताएँ: क्षेत्राधिकार: प्री-संवैधानिक निरंतरता। नियम-निर्माण: संवैधानिक अनुरूपता। न्यायपालिका: स्वायत्तता और दक्षता। संविधान: स्वतंत्रता की गारंटी।
ऐतिहासिक उदाहरण: 1950 के बाद: उच्च न्यायालयों ने अपने क्षेत्राधिकार को बनाए रखा। 1980 के दशक: नियम-निर्माण की शक्ति का उपयोग। 2025 स्थिति: डिजिटल युग में नियम-निर्माण और क्षेत्राधिकार का डिजिटल रिकॉर्ड।
चुनौतियाँ और विवाद: क्षेत्राधिकार की सीमा: अन्य प्रावधानों(जैसे अनुच्छेद 226) के साथ टकराव। नियम-निर्माण: नियमों की वैधता पर सवाल।न्यायिक समीक्षा: क्षेत्राधिकार और नियमों की वैधता पर कोर्ट की जाँच।
संबंधित प्रावधान: अनुच्छेद 226: उच्च न्यायालयों की रिट शक्ति। अनुच्छेद 227: निगरानी की शक्ति। अनुच्छेद 215: रिकॉर्ड का न्यायालय।
क्षेत्राधिकार: प्री-संवैधानिक निरंतरता। 2025 रिकॉर्ड: डिजिटल पारदर्शिता। संघीय ढांचा: मूल ढांचा। नियम-निर्माण: स्वायत्तता की गारंटी।
Conclusion
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